मनुष्य में इच्छित गुण…..

गीता के 16वें अध्याय के श्लोक  1 से 3 में, कहा गया है की-

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।1।।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम्।।2।।

और

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।3।।

सर्वेश्वर के इस कथन में कहा गया है कि दिव्य प्रकृति से संपन्न लोगों में, अनेक गुण होते हैं जैसे- निर्भयता, मन की पवित्रता, आध्यात्मिक ज्ञान में दृढ़ता, दान, इंद्रियों पर नियंत्रण, बलिदान, अध्ययन पवित्र पुस्तकों की, तपस्या, और सीधापन_ अहिंसा, सत्यता, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, दोष-खोज से संयम, सभी जीवों के प्रति करुणा, लोभ का अभाव, नम्रता, विनय और चंचलता का अभावय शक्ति, क्षमा, धैर्य, स्वच्छता, किसी के प्रति शत्रुता, और घमंड की अनुपस्थिति। यहाँ, श्री कृष्ण संत प्रकृति के लोगों के छब्बीस गुणों का वर्णन करते हैं। और इन गुणों के माध्यम से सर्वोच्च लक्ष्य तक स्वयं को ऊपर उठाने के लिए इन्हें हमारी साधना करनी चाहिए साथ ही इसे इस प्रकार विकसित किया जाना चाहिए कि यह हमारे नित्य प्रति जीवन का अंग बन जाए। नीचे हम इन गुणों का व्याख्यात्मक वर्णन कर रहे हैं।

निडरताः निडरता क्या है? यह वर्तमान और भविष्य के दु:खों की चिंता से मुक्ति की स्थिति है। किसी भी प्रकार की अत्यधिक आसक्ति भय का कारण बनती है। जैसे धन की आसक्ति से दरिद्रता का भय होता है, सामाजिक प्रतिष्ठा की आसक्ति से अपयश का भय होता है, पाप के प्रति आसक्ति से पाप के फल की चिन्ता होती है, शारीरिक सुख की आसक्ति से अस्वस्थता का भय होता है इत्यादि। ये डर हमें कमजोर बनाता है और इससे ऊपर उठने का मार्ग वैराग्य और ईश्वर के प्रति समर्पण है। ईश्वर का सानिध्य हमारे हृदय से सभी भय को दूर कर देता है।

आधुनिक युग के प्रमुख विचारक और अमेरिका के प्रेसिडेंट फ्रेंकलिन डी- रूजवेल्ट ने ने भी कहा था ‘निडरता या साहस डर की अनुपस्थिति नहीं है। बल्कि यह आकलन है कि डर से भी महत्वपूर्ण कुछ और है।’ आम जीवन में हमें ट्रैफिक के नियमों का पालन करना होता है। ये ट्रैफिक नियम होने का क्या कारण है? ताकि जो कोई भी गाड़ी चलाए, उसे पता चले कि इसके क्या नियम हैं और लोग उनका अनुसरण करते रहें तो सभी का जीवन सुखमय होगा और किसी को कोई परेशानी नहीं होगी। अगर हम इन नियमों को तोड़ते हैं। तो सजा भी हमें ही मिलेगी।

हैरानी की बात है कि इतने नियम बनाने के बाद भी लोग नियमों का उल्लंघन करते हैं। किसी का बेतरतीब तरीके से ड्राइव करना, कारों के बीच दौड़ने का प्रयास करना, तेज गति से ड्राइव करना, जहां पीली लाइन दूसरों को ड्राइविंग करने से रोकती है उसको दरकिनार करते हुए दूसरे लेन में प्रवेश करना। भले ही लोगों को पता है कि ये हरकतें शायद उनके अपने खुद के अलावा किसी और के जीवन को भी खतरे में डाल देगी। लेकिन लोग फिर भी करते हैं। यही कारण है कि नियमों का उलंघन करने पर न केवल कठोर जुर्माना लगाया जाता है बल्कि जेल भी होती है। वास्तव में नियमों का उलंघन ही हम में डर पैदा करता है जो जीवन में परेशानी का कारण बनता है। नियमों में बंधा व्यक्ति भयमुक्त होता है।

इसलिए यदि कोई व्यक्ति दावा करता है कि उसे डर नहीं है या निडर है – तो इसका अर्थ है कार्य की चुनौती को स्वीकार करना। लेकिन नियमों का उलंघन करना और यह कहना निडर है यह एक अच्छी बात नहीं है क्योंकि डर होना हमें जमीन से जुड़े रहने में मदद करता है। नियमों से परे निडरता अराजकता को पैदा करती है। प्रकृति भी नियमों के विरूद्ध कार्य नहीं करती। इसलिए आसक्ति से मुक्त होने के लिए निडरता जरूरी है और इसे हासिल करने के लिए ईश्वरीये शक्ति का आशीर्वाद जरूरी है। इसलिए कहा जाता है ईश्वर भक्ति प्राप्त होने पर आशक्ति से मुक्ति मिल जाती है और व्यक्ति निडरता का अनुभव करता है। क्योंकि भक्ति से परिपूर्ण व्यक्ति अपने आपको हमेशा ईश्वर के समीप पाता है फलतः प्रकृति के नियमों के अनुरूप कार्य करते हुए नियमानुसार भयमुक्त जीवन जीता है।

मन की पवित्रताः यह आंतरिक स्वच्छता की स्थिति है। मन विचारों, भावनाओं, आदि को उत्पन्न करता है और उसे संजोता है। जब ये नैतिक, स्वस्थ, सकारात्मक और उत्थान करने वाले होते हैं। तो मन को शुद्ध माना जाता है, और जब वे अनैतिक और अपमानजनक होते हैं, तो मन को अशुद्ध माना जाता है। रजोगुण और अज्ञान रूपी वस्तुओं के प्रति आसक्ति मन को दूषित करती है। जबकि ईश्वर के प्रति आसक्ति उसे शुद्ध करती है।

मन की पवित्रता से सम्पूर्ण शरीर की पवित्रता संभव है, अगर हमारा मन दूसरों के प्रति शुद्ध नहीं है तो हम चाहे कितना भी गंगा स्नान कर लें हमें पुण्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। मन की एकाग्रता पर ही हमारी जीत और हार टिकी होती है। कहते हैं मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। गीता मैं भगवान ने कहा है जो मनुष्य मन से पवित्र और निश्चल होता है वही मेरा प्रिय होता है। मन की पवित्रता से अपने ज्ञान इन्द्रियों पर विजय पाया जा सकता है। इसी पवित्रता के बल पर साधु महात्मा तप साधना से ईश्वर के दिव्या रूप का दर्शन कर पाते है। मन को चंचल कहा जाता है क्योंकि वो मन ही है जहां हम शरीर से नहीं पहुंच सकते वहां हमारा मन पहुंच जाता है।

मन दो तरीके से कार्य करता है, यह या तो अच्छा सोचता है या बुरा। लेकिन हमारे लिए क्या सही और क्या गलत इसका निर्धारण हमारी बुद्धि करती है। इसलिए बुद्धि और मन एक दूसरे के पूरक हैं। मन हमें दिखाता है कि रास्ते मैं कंकड़ है लेकिन उस कंकड़ पर खाली पैर पैदल चलना है या चपल पहनकर इसका निर्धारण बुद्धि करती है। मन आत्मा की तीन शक्ति मन, बुद्धि और संस्कार मैं एक है। जब आत्मा शरीर धारण करती है तो हमारा मन काम करना शुरू करता है। मन का कार्य ही है निरंतर सोचते रहना है। इसलिए हम निरंतर अपने वर्तमान, भूत और भविष्य की चिंता में लगे होते हैं।

अर्जुन अवसर मिलते ही भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष अपनी जिज्ञासा का समाधान पाने पहुंच जाते थे। एक दिन उन्होंने पूछा, हे श्रीकृष्ण, यह मन बड़ा चंचल है। मनुष्य को भटकाता रहता है। जिस प्रकार वायु को वश में नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार मन को वश में करना मुझे कठिन लगता है। इसे वश में करने का उपाय बताएं। तो श्रीकृष्ण कहते है अर्जुन, निस्संदेह मन ठहर नहीं सकता, परंतु अभ्यास और वैराग्य से उसे वश में किया जा सकता है। इसपर नियंत्रण का सतत अभ्यास करने वाला मनुष्य, लोभ, मोह और ममता से विरत हो जाने वाला माना जाता है। व्यक्ति मन को वश में कर सकता है।

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